लोकगीतों में माँ का दुलार,पिता का प्यार, सब कुछ तो था।
विड़म्बना वश आज लोकगीत बहुत कम बनने और बजने लगे हैं, लोकगीत हमारी संस्कृति के रंगों और त्योहार की उमंग लिए, हमेशा से हमारे जीवन में मौजूद रहे,हमारी खु़शियों, हमारे ग़मों को हर बार शब्द देते रहे।
नन्ही परी का घर में आना हो, या फिर, बाबुल के घर से बिटिया की डोली का उठना, लोकगीत हर भावना और रिश्तों के साथ आपको मोजूद मिलेंगे,ऐसे वक़्त में हमारे भावों और जज़्बात को, लोक गीत ही शब्द दे पाते हैं और इस तरह लोक गीत रिश्तों के गीत बन जाते हैं,
(नुसरत साहब की आवाज़ में कहीं-न कहीं लोक गीत का अहसास लिए राग देस पर आधारित ये गीत मुझे बहुत पसंद है)
आपके लिए कुछ फ़ाइल अपलोड़ की हैं.अभी सिर्फ़ इन गीतों का लुत्फ़ लीजिये.. (AAMIR AZEEM) को सुनिये और मज़ा लें माटी की ख़ुश्बू लिए चंद गीतों का.
वो बातें जो शहरी दौड़ में हमसे छूटती जा रहीं हैं आसानी से मिल जाएँगीं।परदेस में रहकर अक्सर अपना गाँव,अपना वतन याद आ ही जाता है, अपने गाँव, अपनी माटी को छो़ड़कर आना पड़ता है,तो रह रह कर वहाँ की यादें तड़पाती है.और तब मन करता है उन यादों में खो जाने का जिन्हें हम पीछे छोड़ चले होते हैं.....
जब कभी ये गीत हमसे एक बार फिर जुड़ते हैं, तो वो सब बातें, एक-एक कर याद आने लगतीं हैं, जिन्हें समय की तेज़ गति, और वक़्त के क्रूर हाथों ने हमसे छीन लिया होता है।
जब कभी ये गीत हमसे एक बार फिर जुड़ते हैं, तो वो सब बातें, एक-एक कर याद आने लगतीं हैं, जिन्हें समय की तेज़ गति, और वक़्त के क्रूर हाथों ने हमसे छीन लिया होता है।
यहाँ तक कि घर के बर्तनों को भी कई बार वाद्यों के साथ इस्तेमाल कर लिया जाता, जैसे घर में मिलने वाली पीतल की गागर.........
लोकगीत ज़बान पर इस क़दर चढ़ जाते हैं कि, भले ही उनके शब्द हमें याद ना रहे, पर उनकी धुन हमारे ज़हन में रच बस जाती है । और जब कभी घर में कोई पावन पर्व होता,जिसमें घर की महिलाएँ उन गीतों को गातीं, तो बच्चे, बूढ़े ,जवान सभी, उन गीतों के साथ जुड़ से जाते ।इसी तरह लोकगीतों की ये परम्परा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जा पाती ।
लोकगीत ज़बान पर इस क़दर चढ़ जाते हैं कि, भले ही उनके शब्द हमें याद ना रहे, पर उनकी धुन हमारे ज़हन में रच बस जाती है । और जब कभी घर में कोई पावन पर्व होता,जिसमें घर की महिलाएँ उन गीतों को गातीं, तो बच्चे, बूढ़े ,जवान सभी, उन गीतों के साथ जुड़ से जाते ।इसी तरह लोकगीतों की ये परम्परा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जा पाती ।
पर आज, जैसे मानो लोक गीतों की तरह इस परम्परा के भी पाँव थम से गए हों ।
जन्म से लेकर मृत्यु तक के तमाम संस्कार में से एक, विवाह संस्कार ,एक ऐसा मौक़ा जहाँ रस्म है रिवाज है ,जिसमें गाना है नाच,और धमाल है ।इन सब के साथ है लोकगीत,
अगर बात करें उत्तर प्रदेश के लोकगीतों ख़ास तौर से विवाह गीतों की तो,मेहंदी, सेहरा,कंगना, बन्ना,बन्नी,बिदाई,
ये तमाम शब्द इन लोकगीतों में समाये हैं। ब्रज अवधी,खड़ी बोली का मिश्रण आप इन लोक गीतों में साफ़ तौर पर देख पाते हैं।
इन गीतों में इस्तेमाल होने वाले साज़ों की बात करें तो शुरुआत होती है शहनाई से, और साथ गाए जाते हैं मंगल गीत,जिसमें मूल तत्व होता है बन्नी(दुलहन) के वस्त्रों का, आभूषणों का विवरण करना, उसकी सुंदरता का वर्णन करना, घरवालों की खु़शी का बयान, बन्ने (दूलहे) की वेशभूषा का गुणगान करना, बारातियों का स्वागत,बदाई का आदान प्रदान और दूल्हे के आने की ख़बर कुछ इस तरह से देना
अपने बच्चों की शादी का मोक़ा कई मायनों में ख़ास होता है, जीवन के कुछ ख़ास पलों में से एक पल । माँ, जब अपने बेटे को दूल्हे (बन्ने ) के रुप में देखती है तो उसकी खु़शी का ठिकाना नहीं रहता....और तब वो एहसास लोकगीतों के माद्यम से तरंगित होते हैं........
अपने बच्चों की शादी का मोक़ा कई मायनों में ख़ास होता है, जीवन के कुछ ख़ास पलों में से एक पल । माँ, जब अपने बेटे को दूल्हे (बन्ने ) के रुप में देखती है तो उसकी खु़शी का ठिकाना नहीं रहता....और तब वो एहसास लोकगीतों के माद्यम से तरंगित होते हैं........
और जब दूल्हा आ जाए तो उससे और बारातियों से थोड़ा हँसी मज़ाक़, कुछ छेड़छाड़ न हो तो शादी का मज़ा भला पूरा कहाँ से होगा ...? और थोड़ी छे़डछाड़ कुछ इस तरह से......
लोकगीतों में जहाँ एक ओर हँसी मज़ाक़,छेड़छाड़, रिश्तों की गहराई होती, वहीं जीवन की समझ,उसकी हक़ीक़त भी आसानी से ब्याँ कर दी जाती ।
लोकगीत किसी क़ीमती आभूषण की तरह हैं, जिन्हें प्रयोग में लाने के कुछ समय बाद, जब फिर से सुना जाए, तो भी वही आकर्षण, वही जोश लिए होते हैं।
ये लोकगीतों की ताक़त, उनकी अहमियत ही कही जाएगी कि, कई संगीतकारों ने अपने संगीत में लोकगीतों, या लोकधुनों का ख़ूब इस्तेमाल किया । ऐसे संगीतकारों में चितलकर, नौशाद साहब,ओ.पी नैयर,ख़य्याम जैसे नाम शामिल रहे । कुछ ऐसे फ़िल्मी गीत भी रहे, जो लोकधुनों, शब्दों, के चलते अलग ही बन पड़े हों
लोक धुनों पर आधारित ये गीत कुछ अलग समा बांध देते हैं,हमारी आँखों के आगे उस राज्य,क्षेत्र की तस्वीर बरबस ही बनने लगती है । जैसे की इस गीत को सुनकर,
ऐसा लगता है मानो कि रेगिस्तान की तपती रेत पर क़दमों के कुछ निशान छोड़ती एक औरत चलती जा रही है.......।
लोकगीत किसी क़ीमती आभूषण की तरह हैं, जिन्हें प्रयोग में लाने के कुछ समय बाद, जब फिर से सुना जाए, तो भी वही आकर्षण, वही जोश लिए होते हैं।
ये लोकगीतों की ताक़त, उनकी अहमियत ही कही जाएगी कि, कई संगीतकारों ने अपने संगीत में लोकगीतों, या लोकधुनों का ख़ूब इस्तेमाल किया । ऐसे संगीतकारों में चितलकर, नौशाद साहब,ओ.पी नैयर,ख़य्याम जैसे नाम शामिल रहे । कुछ ऐसे फ़िल्मी गीत भी रहे, जो लोकधुनों, शब्दों, के चलते अलग ही बन पड़े हों
लोक धुनों पर आधारित ये गीत कुछ अलग समा बांध देते हैं,हमारी आँखों के आगे उस राज्य,क्षेत्र की तस्वीर बरबस ही बनने लगती है । जैसे की इस गीत को सुनकर,
ऐसा लगता है मानो कि रेगिस्तान की तपती रेत पर क़दमों के कुछ निशान छोड़ती एक औरत चलती जा रही है.......।
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ये धुन फिल्म सिलसिला के इस गीत की याद नहीं दिलाता
आज हमारे सिनेमा से गाँव, वहाँ के रिवाज और साथ ही लोकगीत .....दूर हो चले हैं, और कभी-कभी तो लोकगीतों के नाम पर ओछापन तक परोसा जाता है ।
पर जब कभी लोकगीतों की झलक लिए कोई गीत सुनाई देता है तो उसे पसंद ज़रुर किया जाता है...
लोकगीत, त्यौहारों,परम्पराओं को समझने और उन्हें जीवित रखने का एक ज़रिया हैं।फिर चाहे होली की उमंग हो या बैसाखी का धमाल
अपनी इस कोशिश में कितने कामयाब रहे ,ये जानने का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा...।(अनुशुमान भैया का शुक्ररिया कुछ चित्रों को बांटने के लिए,कुछ गीत indianraga से लिए गए हैं)
यहाँ भी लोक रंग बिखरे पड़े हैं
लोकगीत, त्यौहारों,परम्पराओं को समझने और उन्हें जीवित रखने का एक ज़रिया हैं।फिर चाहे होली की उमंग हो या बैसाखी का धमाल
अपनी इस कोशिश में कितने कामयाब रहे ,ये जानने का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा...।(अनुशुमान भैया का शुक्ररिया कुछ चित्रों को बांटने के लिए,कुछ गीत indianraga से लिए गए हैं)
यहाँ भी लोक रंग बिखरे पड़े हैं
अगर आप कोई सुझाव,या कुछ जोड़ना चाहते हैं,कोई जानकारी जो हमारी परम्परा को दर्शाती हो या कोई लोक गीत जिसे आप मुझ तक पहुँचा सकें तो आप इस ई-मेल पर भेज सकते हैं
vikaszutshisn@rediffmail.com
जाते -जाते इस शख़्स से भी मिल लीजिये जिसने बिसरे साज़ों को सहेजने का संकल्प ले रखा है
और ये आपके लिए :
(ये पोस्ट दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण (13 जनवरी 2010) के अंक में " फिर से " के अंतर्गत छापी गई थी । पोस्ट को देखने के लिए यहॉँ क्लिक करें)
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