बिंध्यवासिनी देवी : स्नेह और संगीत का दान देनेवाली जननी
♦ मीना श्रीवास्तव
बिंध्यवासिनी जी मेरे जेहन में उन दिनों से बसी हैं, जब मैं बहुत छोटी उम्र की थी। मैं बचपन से उनको रेडियो पर लोकगीत गाते हुए सुनती रही हूं। उन दिनों आकाशवाणी पटना से लोकगीतों के कई कार्यक्रम प्रसारित होते थे और अक्सर उनमें बिंध्यवासिनी जी के गीत सुनने को मिलते। साथ ही घर में अपनी मां को मांगलिक अवसरों पर गाते हुए सुनती और देखती।
संयोगवश मेरा विवाह पटना में हुआ। मेरे पति आकाशवाणी में कार्यरत हैं और वे उन्हें चाची संबोधित करते। उनके मुंह से बिंध्यवासिनी जी के बारे में सुनना अच्छा लगता और मुझे पता भी नहीं चला कि कब मैं उन्हें चाची कहने लगी। चाची से मिलने का सपना अभी पूरा नहीं हुआ था। हां, उन्हें मंच पर गाते हुए देखने और सुनने के कुछ अवसर जरूर मिले थे। उन दिनों आकाशवाणी द्वारा होनेवाले संगीत कार्यक्रमों के चलते ऐसे अवसर मिले थे। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद वो अक्सर भीड़ में घिरी होतीं और मैं संकोचवश उनसे मिल नहीं पाती। मुझे उनसे मिलने का अवसर तब मिला, जब मैं अपनी बड़ी बेटी वत्सला की कथक नृत्य की शिक्षा के सिलसिले में बिंध्य कला मंदिर गयी। मेरे साथ मेरे पति भी थे।
बिंध्य कला मंदिर की सीढ़ियां चढ़ते हुए मेरे पैर कांप रहे थे। वर्षों की साध आज पूरी हो रही थी। सीढ़ियां खत्म होते ही दाहिनी ओर कोने में एक कुर्सी थी। सामने एक मेज थी। पास में दो कुर्सियां थीं। मेज पर उनका बैग रखा था और वो कुर्सी पर बैठी थीं। मैंने अपने भीतर बसी उनकी मूर्ति से उनका मिलान किया। सब कुछ वैसा ही था, जैसा कि उन्हें दूर से देखकर मैं सोचती रही थी। बड़ी-बड़ी आंखों से छलकता अपार स्नेह। छोटी-सी काया में समाहित समूची सृष्टि। मैंने उनके पैर छूए। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा। मेरा माथा चूमकर दुलार किया। बगल की कुर्सी पर बिठाया। मेरे पति को वो बबुआ बुलातीं। मुझे उन्होंने दुल्हिन कहा। अभी के दौर में जब बहू को नाम से पुकारने का चलन है, उनका दुल्हिन पुकारना मन को भिंगो गया।
मैं बिंध्य कला मंदिर जाने लगी। बेटी नृत्य का क्लास करती और मैं उनके पास बैठी उन्हें निहारती, उनकी कभी न खत्म होनेवाली बातें सुनती रहती।
उनका जीवन संघर्षों में बीता था। उन्होंने परिवार की मर्यादा में रहते हुए संघर्ष किया और यश तथा लोकप्रियता हासिल की। वो औरों को भी यही सीख देतीं। वो कहतीं, ‘किसी भी उपलब्धि के लिए परिवार का सहयोग होना चाहिए। अगर सहयोग नहीं मिला तो रस की कमी हो जाएगी। फिर तो कंठ ही सूख जाएगा। …फिर राग कहां से फूटेगा!’ वो बीच-बीच में अपने संगीत के खजाने में से कोई राग, कोई धुन, कोई बोल चुनतीं और मुझे बतातीं। मुझे लगता, जैसे वो अपना खजाना मुझ पर लुटा रही हों।
जब लोकगीत की कक्षा चल रही होती, वह मुझे अपने साथ ले जातीं और कक्षा में बिठा देतीं। वो चाहती थीं मुझे विधिवत संगीत सिखाना, पर मेरी अपनी विवशताएं थीं। उनके पास पारंपरिक गीतों का खजाना था। उनके पास हर मौसम, हर अवसर और हर भाव के गीत थे। वो स्वयं रचती भी थीं। उनके गीतों और गायकी में प्रकृति की हर छटा और जिंदगी की हर सच्चाई मौजूद थी। उनके गाने में जादू था। वो जब गातीं थीं, बोल, सुर, लय और ताल सब उनमें घुल-मिल जाते।
एक शाम अचानक वो मेरे घर पहुंचीं। यह मेरे जीवन की कभी न भूलनेवाली शाम थी। उस दिन बिंध्य कला मंदिर में नृत्य की कक्षा समय से कुछ पहले समाप्त हो गयी थी और मैं वत्सला को लाने नहीं जा सकी थी। वो वत्सला को साथ लिये पहुंचीं। मैं अपने घर में उन्हें पाकर धन्य-धन्य हुई। उन्होंने हम सब के साथ दो घंटे बिताया। मेरे आग्रह पर उन्होंने कुछ दुर्लभ धुनें और बोल बताये। उनके पास आजादी के संघर्ष के दिनों के ऐसे लोकगीतों का भी बड़ा खजाना था, जिसमें आजादी का इतिहास छिपा हुआ है। सन् उन्नीस सौ साठ के आसपास एचएमव्ही द्वारा रिकार्ड किये गये उनके गीतों में से एक ‘पिया ला दे रेशम की डोरी’ की मैंने याद दिलायी, तो वो खिलखिल हंस उठीं। मैं उनकी हंसी की पवित्रता में नहा गयी थी। उनकी वो निर्मल हंसी आज भी मेरे मन में बसी हुई है। उस शाम उन्होंने कहा था, ‘मैं अनंत बेटे-बेटियों की मां हूं।’ यह सच भी है कि वह अपने नाम के अनुरूप देवी का अवतार थीं। वो स्नेह और संगीत का दान देनेवाली जननी थीं।
(मीना श्रीवास्तव। ग्रामीण और नागर, दोनों संस्कृतियों से गहन रिश्ता। बिहार के मोतिहारी जिले के माधोपुर मधुमालत गांव में जन्म और लालन-पालन। आरंभिक शिक्षा भी गांव में। कालेज की शिक्षा जनपदीय कस्बाई नगर मोतिहारी में। कभी-कभार संस्मरण लिखती
हैं। बेहद सजग पाठिका। फिलहाल पटना में रहती हैं। उनसे hrishikesh.sulabh@gmail.com पर संपर्क करें।
मौहल्ला लाइव से साभार
2 comments:
बेहद खूबसूरत प्रविष्टि ! आभार ।
vikas...thanks 4 introducing this lady....great going
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