Tuesday 27 March 2012

फ़िलहाल तस्वीरों में 'शाळा' !

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फ़िल्म 70 के दौर के आस पास की पृष्ठभूमि लिए है ,काफ़ी रूमानी सा एहसास लेकर ,जैसे किसी फूल को खिलते
देखने का एहसास कराती हो , फ़िल्म देखते हुए कई मर्तबा अपने आप ही आप मुस्कुरा उठते हैं !
अभिनय के साथ साथ कलाकारों ( ख़ासकर जिस तरीके से फ़िल्म के बाल कलाकारों ने अभिनय किया है ) के 'भाव ' आपको कहानी के साथ बांधे रखते हैं ! फ़िल्म में एडिटिंग और कैमरा वर्क काफ़ी प्रभावित करता है !



वरुण ग्रोवर कहते हैं '
'उम्र के सबसे मासूम, complicated, रोमांचक दौर पर बनी एक ऐसी फिल्म जो गहरी भी है,
विस्तार वाली भी, और मज़ेदार भी. (और एक धुंधलाते से nostalgia जितनी रूमानी भी.)पूरे साल में ऐसा ३ या ४ फिल्मों के बारे में ही कहा जा सकता है'' !







यूं तो फ़िल्म मराठी भाषा में है,पर रेखा भारद्वाज के सूफियाना और मदहोश करने वाले इस गीत का जुडना इसे और ख़ास बना देता है ! जैसे उन सभी जज़्बात को जिस्म पर पड़ने वालीं बोंदों की तरह महसूस करा रही हों !

COMPOSED BY: ALOKANANDA DASGUPTA
SINGER: REKHA BHARDWAJ
LYRICS: RAJESHWARI DASGUPTA
EDITED BY: B. MAHANTESHWAR

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(लुकमान )

Sunday 25 March 2012

रू-ब-रू गुलज़ार !

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गुलज़ार दिल्ली आने वाले हैं ! ये सुनते ही मैंने तय कर लिया था कि इस बार नहीं चूकुंगा ,अमूमन वो हर साल दिल्ली आते रहते हैं (ग़ालिब के जन्म दिन पर )पर किसी वजह से अपना मिलना ना हो पाया (सुनना ) !

बहरहाल 25 मार्च को दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में पेंगुइन की ओर से आयोजित 'स्प्रिंग फ़ेस्टिवल ' के आखिरी दिन गुलज़ार साहब को आना था ओर वो आये भी ! और इस तरह आये कि कुछ एक पलों के लिए ही सही माहोल खुशनुमा बन गया !

सफ़ेद चमचमाते कुर्ते और पीली जूतियाँ(मोजडियां(?))पहने गुलज़ार सभी की आँखों में एक दम से समा गए थे !
गुलज़ार साहब के साथ मंच पर उनकी कई कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद करने वाले पवन के वर्मा भी मौजूद रहे ! कार्यक्रम में गुलज़ार साहब ने अपनी लिखी और अनुवाद की हुईं कुछ एक कविताएँ भी सुनाईं और उनका अंग्रेज़ी अनुवाद पवन वर्मा ने किया !

तकरीबन एक घंटे तक चले इस कार्यक्रम का माहोल भी काफ़ी खुशनुमा और कई बर गुदगुदा देने वाला रहा ! जहाँ उन्होंने कविताओं का अनुवाद करने के दौरान आने वाली मुश्किलों की भी बात कही !

दिल्ली के अपने पुराने दिन हो या पंचम ( संगीतकार आर .डी. बर्मन ) का साथ सभी अनुभवों को गुलज़ार सुनने वालों के साथ बांटते रहे ! उनकी सबसे छू लेने वाली कविता थी 'मेघना ' जो उन्होंने अपनी बेटी के लिए लिखी थी !

( रिकॉर्डिंग,मोबाइल से की गयी है ,इसलिए ऑडियो के साथ समझौता कर ही लीजिए :P )



(लम्हों में ....)



(*pic courtesy : Priyanka Khot,and Penguin India)

वीडियो यहाँ पर

Saturday 17 March 2012

'ये रातें ये मौसम ये हँसना हँसाना ' - फैयाज़ हाश्मी

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जितना मुझे याद पड़ता है ,मैंने फैयाज़ हाश्मी का लिखा गीत सबसे पहले लता जी
(लता मंगेशकर ) की आवाज़ में सुना था , और जैसे ही सुना ,सुनता रह गया , तकरीबन 4 मिनट के उस गीत को मैंने एक बार से ज़्यादा ही सुना होगा , गीत के बोल थे

'ये रातें ये मौसम ये हँसना हँसाना ' लता जी ने इस गीत को पंकज मलिक को श्रद्दांजली के तौर पर अपनी एलबम में शामिल किया था ! उनकी आवाज़ के साथ ताल मिलाते उस तबले की धीमी थाप ,बांसुरी और सितार ने मानो मुझे अपने वश में कर लिया था !

फैयाज़ हाश्मी का जन्म सन १९२० में कलकत्ता में हुआ (born in 1920) बचपन में ही लिखने पढ़ने का शोक और माहोल मिलने से उन्होंने 13 -14 साल की उम्र में ग़ज़लें लिखना शुरू कर दिया !

उनके पिता सयद मोहम्मद हुसैन हाश्मी दिलगीर ,एक मशहूर शायर और कई नाटक भी लिख चुके थे, साथ ही तब के एक प्रसिद्द थिएटर 'मदन थिएटर ' में बतौर निर्देशक एक जाना पहचाना नाम बन चुके थे ! फैयाज़ हाश्मी के इस शेर से ही इस बात का इल्म हो जाता है की आगे चल कर ये बच्चा ज़माने में क्या कुछ करने वाला है ''चमन में गुंचा -ओ -गुल का तबस्सुम देखने वालो ,कभी तुमने हसीन कलियों की का मुरझाना भी देखा है ''!
( ''Chaman main Ghuncha-o-gul ka tabassum dekhne walo – Kabhi tum ne haseen kalyoon ka murjhana bhi dekha hai”) यहाँ ये बताना भी लाज़मी है कि फैयाज़ की उम्र तब काफ़ी कम रही और सातवीं में पढ़ा करते थे !

9वीं में आते आते फैयाज़ मुशायरों में भी हिस्सा लेने लगे,उनकी पहली शायरी की किताब 'राग रंग 'नाम से 1944 हिंदुस्तान में छपी ! उनकी लिखी कई कविताएँ अदबी दुनिया , अदबी लतीफ़ , बीसवीं सदी , शमा, निगार, अमर जदीद ,'अमृत बाजार पत्रिका ' जैसी पत्रिकाओं में छपती रहीं ! कविताओं ,शायरी की अलावा फैयाज़ ने कई कव्वालियां और नात भी लिखे ! उन्होंने देश भक्ति गीत जैसे (Ae Quiad-e-Azam tera ehsan hai ehsan” & “ Suraj Kare Salam – Chanda kare Salam”.) भी लिखे !

गीतकार शायर तो वो थे ही साथ ही संवाद लेखक भी रहे ! फैयाज़ के लिखे “Tasveer Teri Dil Mera Behla Na Sakhe Gi”से तलत महमूद रातों रात चमक उठे ! उस समय फैयाज़ के लिखे तमाम गीतों में कमाल दास गुप्ता का ही संगीत हुआ करता था ! नजरुल इस्लाम ने फैयाज़ के लिखे गीतों और अशार की तारीफ में कुछ इन शब्दों में की ''Tum mann main doob kar mann ka bhed nikaltey ho. Aasan shubdoon mein mushkil baat kehna buhut mushkil hay”!

फैयाज़ ना सिर्फ़ हिंदी उर्दू के जानकार रहे बल्कि उन्होंने ब्रज भाषा का भी अपने गीतों में काफ़ी अच्छे से और खुलकर इस्तेमाल किया और आनेवाली नस्लों के लिए एक उदाहरण पेश किया

बीस साल की उम्र में ही एक बेहद संजीदा गीत लिखने वाले फैयाज़ हाश्मी के बारे में खालिद हसन कहते हैं :

''मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही देशो में मशहूर रहे गीतकार / शायर फैयाज़ हाश्मी से सिर्फ़ एक ही बार मिल सका , और अब इस बात का अफ़सोस है कि मैं उनसे दोबारा मिलने का मोका क्यों ना तलाश सका ''!

ये 1968 के आस पास की बात है मैं काम के सिलसिले से लहोर में ही मौजूद था , वहीँ एक दिन मेरे एक दोस्त ने मेरा परिचय काले चश्मे पहने हुए उस शख्स से कराया जो बड़ी आराम से एक कुर्सी पर बैठा हुआ था ,और अपनी चाय की चुस्कियों का मज़ा लूट रहा था ,''ये हैं फयाज हाश्मी '' मेरा दोस्त बोला !

मैंने उनसे हाथ मिलाया ,पर मैं अभी भी नहीं समझ पा रहा था कि वो कौन हैं ,मेरा दोस्त एक बार फिर बोला ,''यस द फयाज़ हाश्मी '',और आखिर में मैं समझा कि मेरे सामने वो शख्स बैठा है जिसका कि कोई सानी नहीं था ! वो वहां क्या कर रहे थे इसका मुझे कोई इल्म नहीं ! सदाअत हसन मंटो या “Prince of Minerva Movietone” Sadiq Ali or Mumtaz Shanti or Rehana or Meena Shorey, की तरह पाकिस्तान ने इनकी भी कदर नहीं जानी ,और ये अफ़सोस की बात है कि फयाज़ हाश्मी के काम को ना हम पहचान सके और ना उनको वो दर्जा दिला पाए जिसके कि वो हकदार रहे , ना ही उस इंडस्ट्री ने उनकी सुद लेनी की ज़रूरत समझी ,जिसमे उन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया ,और ना ही उस राज्य ने जिसकी उन्होंने नागरिकता चुनी !

ग्रामाफोन कम्पनी ऑफ इंडिया के साथ अपने जीवन की शुरुआत करने वाले हाश्मी को 1947 में पाकिस्तान के नष्टप्राय संगीत को संजोने और उसके संरक्षण के लिए भेजा गया , लाहौर जो कि ,कलकत्ता और बम्बई के बाद EMI का तीसरा ख़ास सेंटर था एक तरह से पूरी तरह से बिगड़ चुका था ,इसके लिए फय्याज़ हाश्मी ने वहां के साज़िंदों और गायकों को उनकी काबिलयत के मुताबिक खोजना और इकट्ठा करना शुरू किया ! 1947 में हुई उस उथल पुथल के बाद लाहौर में हुई पहली रिकॉर्डिंग का श्रेय भी हाश्मी को ही जाता है !

ये फय्याज़ हाश्मी ही थे जिन्होंने Munawwar Sultana (not the actress), Farida Khanum and Zeenat Begum, जैसी नामचीन हस्तियों को हम सब के सामने लाया !

कलकत्ता (हय्यात खान लेन ) में रहने के दौरान फैयाज़ हाश्मी के पिता मदन थिएटर के लिए बतौर लेखक ,
निर्देशक काम किया करते थे ! घर पर शुरुआत से ही शायरों का आना जाना और मुशायरों , महफिलों का जमना होता रहता था , जिसे फेय्याज़ हाश्मी भी बड़े चाव से सुनते ,और समझते भी थे !

वहीँ 'इंडियन शेक्सपीयर ' कहलाने वाले आगा हशर कश्मीरी भी इनके पड़ोसी थे ! फैयाज़ की ही लिखी एक और ग़ज़ल को जो कि काफ़ी मकबूल भी हुई थी को मास्टर फ़िदा हुसैन ने गाया था जिसके बोल थे 'कदर किसी कि हमने ना जानी ,है मोहोब्बत है जवानी ' ( Qadr kisi ki hum ne na jaani: Haa’i mohabbat haa’i jawani).

20 साल की उम्र में ग्रामाफोन कम्पनी ने फैयाज़ को अपने यहाँ अस्थाई गीतकार के तौर पर रख लिया ,वहीँ कम्पनी में बतौर संगीतकार कमल दास गुप्ता जुड़े हुए थे ! कमल दास गुप्ता और फेय्याज़ दोनों ने आगे चलकर काफ़ी अच्छा कम किया !

1941 में फैयाज़ ने अपना पहला गीत ''Sab din ek samaan nahin tha'' लिखा ,जिसे तलत महमूद ने गाया ,
साथ ही ''Tasveer teri dil mera behla na sakay gi'' को भी काफ़ी शोहरत मिली !. इसके अलावा पंकज मलिक के लिए 'ये रातें ये मौसम ...हेमंत कुमार, जुतिका रॉय, फिरोजा बेगम और जगमोहन के लिए पहला हिंदी /उर्दू गीत ! कुल मिला कर फेयाज़ ने तकरीबन ५०० (500 ) गैर फ़िल्मी गीत लिखे , फिर चाहे गीत दर्द में डूबा हो या फिर दिकश /रोमांटिक ! फैयाज़ ने भारत और पाकिस्तानी फिल्मों में भी गीत लिखे !




मूल लेख यहाँ


हमें कोई ग़म नहीं था ग़म-ए-आशिक़ी से पहले
ना थी दुश्मनी किसी से तेरी दोस्ती से पहले

है ये मेरी बदनसीबी तेरा क्या क़सूर इस में
तेरे ग़म ने मार डाला मुझे ज़िन्दगी से पहले

मेरा इश्क़ जल रहा है ऐ चाँद आज छुपा जा
कभी प्यार था हमें भी तेरी चांदनी से पहले

मै कभी ना मुस्कुराता ग़र मुझे ये इल्म होता
की हजारों ग़म मिलेंगे मुझे इक ख़ुशी से पहले

ये अजीब इम्तेहाँ हैं की तुम ही को भुलाना है
मिले कब थे इस तरह हम तुम्हे बे-दिली से पहले
-फैयाज़ हाश्मी

2) टकरा ही गई मेरी नज़र उन की नज़र से।
धोना ही पडा हाथ मुझे क़ल्ब-ओ-जिगर से।

इज़हार-ए-मोहब्बत न किया बस इसी डर से,
ऐसा ना हो गिर जाऊं कहीं उन की नज़र से।

ऐ! जोक-ए-तलब, जोश-ए-जुनून ये तो बतादे,
जाना है कहाँ और हम आए हैं किधर से।

'फैयाज़' अब आया है जुनूं जोश पे अपना,
हंसता है ज़माना मैं गुज़रता हूँ जिधर से।

Tuesday 13 March 2012

रुह के पार होता ,नदिया के पार का संगीत

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केशव प्रसाद मिश्र के उपंन्यास 'कोहबर की शर्त' पर आधारित फिल्म 'नदिया के पार ' 1982 में प्रदर्शित हुई ,जो कि अपनी सादगी से कईयों के मन में घर कर गयी ! फिल्म की कहानी के साथ -साथ इसका संगीत भी काफ़ी प्रभावित करने वाला रहा , ग्रामीण परिवेश में रची इस कहानी की एक और ज़रूरत थी वो था इसका 'मौलिक संगीत' का होना !

राजश्री प्रोडक्शन के साथ लंबे अरसे तक जुड़े रहे रविन्द्र जैन इस फिल्म में बतौर गीतकार और संगीतकार दोनों ही भूमिकाओं में नज़र आये , जो इस फिल्म में कहीं भी अपने काम से निराश नहीं करते ! फिल्म के संगीत की सबसे ख़ास बात ये रही कि इसका संगीत कहानी को आगे बढ़ाने में मदद करता है ! फ़िल्म का पार्श्व ग्रामीण होने से फ़िल्म के गीतों में संगीत भी भोजपुरी शैली के थे, जो कि उसके किरदारों और भावना को पूरी तरह से व्यक्त करते है !

फिल्म के गायकों की अगर बात करें तो सुरेश वाडकर ,सुशील कुमार ,चंद्रानी मुखर्जी ,हेमलता और जसपाल सिंह की आवाज़ स्वरों का रविन्द्र जैन ने सही तरीके से प्रयोग किया है ,पर अधिकतर गीत हेमलता और जसपाल सिंह की आवाज़ में हैं और दोनों काफ़ी हद तक इसमें न्याय करते हैं ! फिल्म की पटकथा ,संवाद ,निर्देशन गोविंद मूनीस का था !


कौन दिसा में लेके चला रे बटुहिया -'चन्दन और गुंजा' के आपसी संवादों को बेहद खूबसूरती से रविन्द्र जैन एक गीत की शक्ल देते हैं, जिसमे दोनों की आपसी छेडछाड को दर्शाया गया है ,असल में इसी गीत के दौरान दोनों के बीच का मनमुटाव खत्म होकर 'प्रेम की शक्ल लेता है ,जोकि फिल्म के इस गीत में साफ़ झलकता हैं !

बतौर गीतकार रविन्द्र जैन इस फिल्म में काफ़ी जमे हुए नज़र आते हैं ,भाषा और विषय पर उनकि पकड़ का अनदाज़ा फिल्म के गीतों को सुनकर आसानी से लगाया जा सकता है !

वही हेमलता का गाया हुआ 'जब तक पूरे ना हो फेरे सात'.. इस विवाह गीत में मिटटी की खुशबू ना सिर्फ स्वरों में ,बल्कि गीत के बोलों और उसके वाद्य सयोंजन में भी साफ़ नज़र आती है !गीत में कोरस का भी बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है !

एक गाँव के उस माहौल को ये गीत काफ़ी अच्छे से बयाँ करता नज़र आता है ,जहाँ आस पड़ोस की महिलाएं इकट्ठी होकर विवाह गीत गाती हैं ! संगीतकार रविन्द्रजैन ने शहनाई ,तबला ,संतूर ,ढोलक ,बांसुरी ,वॉयलिन का भी काफ़ी किफ़ायत और समझदारी से प्रयोग किया है !

फिल्म
का अगला गीत 'जोगी जी वाह, जोगी जी'..सुशिल कुमार ,हेमलता ,चंद्रानी मुख़र्जी और जसपाल सिंह का गाया एक कर्णप्रिय गीत है ,ऐसे गीतों में रविन्द्र जैन का कोई सानी नहीं ,गीत में आंचलिकता का भरपूर रंग नज़र आता है ! गीत को सुनकर ये कहा जा सकता है कि फिल्म के मुख्य कलाकरों में से एक सचिन पर गायक जसपाल सिंह की आवाज़ बिलकुल सटीक बैठती है !

हेमलता ,जसपाल सिंह के नाम भले ही आज कुछ लोग भुला चुके हों पर जब कभी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों और उनके संगीत की बात होगी तो 'नदिया के पार' को भुलाया नहीं जा सकता ! 'गुंजा रे ,चन्दन '.... काफ़ी कम वाद्यों के इस्तेमाल से भी एक अच्छी रचना बन सकती इसकी मिसाल सुरेश वाडकर और हेमलता का गाया ये प्रेम गीत है, जिसमे बासुरी और ढोलक और कहीं कहीं वॉयलिन पूरे गीत में अपनी झलक देते रहते हैं , इस गीत के अंतरे काफ़ी लंबे होने पर भी बोझिल नहीं करते ,वैसे इस गीत में सुरेश वाडकर हेमलता से काफ़ी आगे नज़र आते !

' साँची कहे तोरे आवन से ... इस गीत की शुरूआती धुन (prelude) ही आपको एक तरह से पूरे गीत के साथ जोड़े रखती है , बांसुरी और ढोलक पर पड़ने वाली थाप और उस पर जसपाल सिंह के ऊँचे सुर एक तरह की उमंग लिए हुए है ,जो कि पर्दे पर सचिन बखूबी निभाते हुए भी नज़र आते हैं , एक दम सटीक ,और झूमने पर मजबूर करते हुए ,रिश्तों पर आधारित गीतों की अगर एक फेहरिस्त बनाई जाये तो उसमें इस गीत को रखना लाज़मी लगता है !गीत की लोकप्रियता इसी बात से आंकी जा सकती है कि राजश्री फ़िल्म्स ने इस फिल्म के हिंदी रूपांतरण (हम आपके हैं कौन ) में इसी तरह के एक गीत को शामिल किया था (धिकताना धिकताना धिकताना ....)

सन् 1973 में आई 'सौदागर' रविन्द्र जैन की राजश्री बैनर के लिए पहली फिल्म थी जिसमें उन्होंने संगीत दिया था। 'तूफान, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, दुल्हन वही जो पिया मन भाये, पहेली, अंखियों के झरोखे से, सुनयना, गोपाल कृष्ण, राधा और सीता, न्याय, मान अभिमान, नदिया के पार, अबोध, बाबुल, विवाह ,और एक विवाह ऎसा भी, में रविन्द्र जैन ने संगीत दिया !

गीतों के बोलों और संगीत की अगर बात की जाये तो संगीत की कम समझ रखने वाला व्यक्ति भी इन धुनों को बेहद आसानी से ना सिर्फ याद रख सकता है बल्कि गुन गुना भी सकता है कुल मिला कर इस फिल्म के संगीतकार और गीतकार रविन्द्रजैन फिर साबित कर देते हैं कि उनकी धुनें आज भी अपना माधुर्य लिए हुए हैं ,ख़ास बात ये भी रही कि फिल्म के तमाम गीत कम मशहूर गायकों के गाये हुए पर फिर भी अपने बोलों और धुनों के चलते घर घर में मशहूर हुए